Saturday, December 26, 2020

वंश परंपरागत कारीगर समाज की स्थिति शासकीय भागीदारी द्वारा उत्थान...



घरेलू और कारीगरी कार्यक्षेत्र भारत के सामाजिक-आर्थिक ढाँचे की रीढ़ हैं। कारीगरों में ब़ढ़ई (काष्ठकार), लोहार, मिस्त्री, नक्काश, बुनकर, मोची, चर्मकार, कुम्हार, झाड़ू बनाने वाले, तेली, दर्ज़ी, बाँस और गन्ना श्रमिक तथा नारियल से रस्सी बनाने वाले माने जाते हैं। उनमें से बढ़ई और लोहार गांव की आर्थिक संरचना में सर्वोच्च स्तर पर होते हैं क्योंकि उनकी सेवाएं अत्यावश्यक हैं। एक सुप्रतिष्ठित नृविज्ञानी, जेन ब्रौवर, ने अपनी पुस्तक ‘द मेकर्स ऑफ़ द वर्ल्ड – कास्ट, क्राफ़्ट एण्ड माइंड ऑफ़ साउथ इंडियन आर्टीज़न्स’ (ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली, 1995), में कारीगरों की परंपरा और विरासत को बेहद दिलचस्प तरीके से ग्रहण कर प्रस्तुत किया है। परंपरागत रूप से कारीगर और घरेलू उत्पादक, समाज के वंचित तबके से आते हैं – अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) तथा अल्पसंख्यक समुदाय। उनके जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए, उनकी आजीविका के प्राथमिक स्रोत को एक सतत विकास-मार्ग पर मज़बूती से स्थापित करना ज़रूरी है। हालांकि असल में, बढ़ते विनियमन और भूमंडलीकरण के दौर में कारीगरी तथा घरेलू उत्पादन क्षेत्र स्वतंत्र रूप से फल-फूल नहीं पा रहा है। अतः अपर्याप्त प्रौद्योगिकी, अनुपयुक्त विपणन तथा संस्थागत क्रेडिट जैसे क्षेत्रगत बाधाओं को ध्यान में रखकर उनका समाधान ढूंढा जाना चाहिए। इसलिए, कारीगरी तथा घरेलू उत्पादन क्षेत्रों के सबलीकरण की दिशा में संबंधित संस्थागत संरचना का पुनर्गठन सबसे परिवर्तनकारी तरीका हो सकता है। इसके आलोक में योजना आयोग की रिपोर्ट- कारीगरी तथा घरेलू उत्पादन के लिए प्रौद्योगिकीय, निवेश और विपणन सहायता पर अंतर-मंत्रालयी कार्य समूह की रिपोर्ट, जिसे आईएमजी (2005) कहा जाता है, में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव रखा गया था।
एमएसडीई ने कौशल विकास के लिए मूलभूत आवश्यकताओं के रूप में पांच महत्वपूर्ण स्तम्भों का एक ढांचा तैयार किया है  – कुशल लोगों का समूह तैयार करना, मांग के अनुरूप आपूर्ति, वैश्विक मानकों का प्रमाणीकरण, मांग को आपूर्ति से जोड़ना और उद्यमशीलता को उत्प्रेरित करना। मंत्रालय की ओर से कारीगरों के निमित्त केवल ‘रिकग्निशन ऑफ़ प्रायर लर्निंग सर्टिफ़िकेशन’ (आरपीएल) तथा ‘गुरु-शिष्य परंपरा’ पर आधारित कौशल हस्तांतरण का प्रावधान है जिसके तहत निपुण प्रशिक्षक वरिष्ठ कारीगरों के रूप में युवाओं को प्रशिक्षित करते हैं। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, कौशल हस्तांतरण की यह योजना सफ़ल नहीं हो पायी है।

जैसा कि पहले बताया गया है, कारीगर सम्बन्धित मामलों के लिए पृथक मंत्रालय के पीछे तर्क यह है कि उनके विकास तथा कल्याण सम्बन्धी योजनाएं अलग-अलग मंत्रालयों तथा विभागों की देख-रेख में होने के कारण, बिखराव की स्थिति में रहती हैं और चूंकि किसी भी मंत्रालय को अंतर-मंत्रालयी समन्वयन का अधिकार-क्षेत्र प्राप्त नहीं है, इसलिए ये सुचारु रूप से क्रियान्वित नहीं हो पाती हैं।

भारतीय कारीगरों, खासकर विश्वकर्मा समुदाय, के अधिकांश वर्गों से जुड़े अमूर्त कौशल की विरासत और पारंपरिक हस्तांतरण प्रणाली को देखते हुए कारीगरों के विकास के मुद्दों को एमएसडीई द्वारा स्थायी रूप से संभाला नहीं जा सकता है। ध्यातव्य है कि एमएसडीई का अधिकार-क्षेत्र न तो आईएमजी 2005 की तर्ज़ पर कारीगरों के लिए एक अलग मंत्रालय की सिफ़ारिश के अनुकूल है और ना ही यह कारीगरों/दस्तकारों और उनकी संस्कृति एवं विरासत के सतत सशक्तीकरण की वैश्विक पद्धतियों से मेल खाता है। कुल मिलाकर कारीगरों के पारंपरिक कौशल की सुरक्षा, संरक्षण और संवर्धन की आवश्यकता है और निस्संदेह अतिरिक्त उद्यमिता प्रशिक्षण तथा स्वरोज़गार और आजीविका के लिए सहायता की भी ज़रूरत है।
इसीलिए आज वर्तमान के परिवेश में मध्यप्रदेश के 52 जिलों में कारीगर विकास महासंघ के गठन की गया है जो यथार्थ में धरातलीय कारीगरों विकास  हितों के लिए नवनिर्माण किया है, 
जो आज तक भारत वर्ष में नही हो सका अब मध्यप्रदेश से शुभारंभ होगा,
इसके लिए विश्वकर्मा समाज के नेतृत्व में आगाज हो रहा है,

कालूराम केसाजी लोहार 
राजीकावास हाल अहमदाबाद
कारीगर समाज के शुभचिंतक
पूर्व राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य - भाजपा - कारीगर प्रकोष्ठ नई-दिल्ली
पूर्व प्रदेश सचिव - राजस्थान समाज सेवा समिति गांधीनगर (गुजरात)
संस्थापक अध्यक्ष - अखिल भारतीय मारु लोहार समाज धर्मशाला,सुंधा-पर्वत राज.
राष्ट्रीय महासचिव - अखिल भारतीय विश्वकर्मा शिल्पकार महासभा
पूर्व पश्चिमी जोन अध्यक्ष - अखिल भारतीय विश्वकर्मा महासभा- कोलकाता
9558716683 - 9428100506


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